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ऋण का सदुपयोग करने से और कोविड संकट टलने के बाद देश की अर्थव्यवस्था तेजी से भरेगी कुलांचे

चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में देश की आय पिछले वर्ष की पहली तिमाही की तुलना में कम रही है। किसी एक तिमाही में यदि आय अथवा जीडीपी पिछले वर्ष से कम होती है तो इसे ‘मंदी’ कहा जाता है। यदि यह गिरावट एक के बाद एक दो तिमाहियों तक लगातार जारी रहे तो इसे ‘तकनीकी मंदी’ कहा जाता है। अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार तब माना जाता है कि अर्थव्यवस्था वास्तव में मंदी की चपेट में आ गई है। वैसे कभी-कभी मंदी कई वर्षों तक चलती है। जैसे अमेरिका में 1930 से 1938 के बीच के वर्षों में सात वर्षों के दौरान पिछले वर्ष की तुलना में आय घटती रही। ऐसी मंदी जब कई वर्षों तक जारी रहे तब उसे ‘ग्रेट डिप्रेशन’ अथवा लंबी मंदी कहते हैं।

दोहरे आंकलन: भारत लंबी मंदी में प्रवेश कर चुका:विश्व बैंक, भारत मंदी से शीघ्र उबर सकता:मुद्रा कोष

फिलहाल वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आकलन में अंतर है। मौजूदा स्थिति तकनीकी मंदी की प्रतीत होती है, क्योंकि इसका दायरा दो तिमाहियों तक सीमित रह सकता है। विश्व बैंक के अनुसार हम अब लंबी मंदी में प्रवेश कर चुके हैं। वहीं मुद्रा कोष के अनुसार हम मंदी से शीघ्र उबर सकते हैं और विश्व अर्थव्यवस्था की विकास दर सकारात्मक हो जाएगी। इसके उलट विश्व बैंक को इस पर संदेह है। ऐसे में इस पहेली को सुलझाना होगा कि क्या यह महज दो तिमाहियों की ही बात है या फिर मंदी का मामला लंबा खिंच ने वाला है।

कोरोना टीके को विश्व की सात अरब जनता तक पहुंचाने में दो से तीन वर्ष तक लग सकते हैं

आज पूरी दुनिया में कोविड का टीका बन जाने पर भरोसा बढ़ा है। कई कंपनियों ने दावा किया है कि वे जल्द टीका मुहैया कराएंगी। यदि ऐसा संभव होता है तो मंदी की भी जल्द विदाई हो जाएगी। हालांकि दूसरे कुछ अध्ययन यह भी बताते हैं कि कोरोना वायरस निरंतर अपना आकार बदल रहा है। ऐसे में आशंका यही है कि टीका उसके बदले हुए स्वरूप पर कितना प्रभावी होगा। यह भी देखा गया है कि कोविड से उबरने के बाद भी लोगों को स्वास्थ्य संबंधी तमाम परेशानियां झेलनी पड़ रही हैं। उन्हें कमजोरी, सिरदर्द, सांस फूलना, चक्कर आना इत्यादि दिक्कतें पेश आ रही हैं। टीके के अंतिम रूप से तैयार होने और उसे विश्व की सात अरब जनता तक पहुंचाने में दो से तीन वर्ष तक लग सकते हैं।

मौजूदा मंदी तकनीकी रहेगी या फिर लंबी खिंचेगी

वैसे अतीत के अनुभव यही बताते हैं कि मंदी के प्राथमिक असर की तुलना में उसके अगले चरण का असर ज्यादा गहरा होता है। जैसे 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट में विश्व की आय में मात्र 0.1 प्रतिशत की गिरावट आई थी, लेकिन 2009 में यह गिरावट 2.5 प्रतिशत रही। जैसे श्रमिक को पर्याप्त भोजन न मिले तो वह कुछ समय तक वह पूर्ववत कार्य कर सकता है, परंतु इसका दीर्घकाल में उसके शरीर पर दुष्प्रभाव पड़ना तय है। अत: अभी यह कह पाना संभव नहीं कि मौजूदा मंदी तकनीकी रह जाएगी या फिर लंबी खिंचेगी।

मंदी पर मुद्रा कोष और विश्व बैंक के आकलन विरोधाभासी हैं

इसी कशमकश में मुद्रा कोष और विश्व बैंक के आकलन विरोधाभासी हैं। हालांकि दोनों संस्थाओं में सहमति भी है कि अधिकांश देशों ने कोविड संकट से खुद को बचाने में अभी तक सफलता हासिल की है। तकरीबन सभी सरकारों ने बाजार से ऋण लेकर अथवा अपने केंद्रीय बैंकों द्वारा नोट छपवाकर अर्थव्यवस्था के चक्के को चालू रखा है। यह अच्छी बात है। ऋण लेने और नोट छापने में अंतर है। ऋण लेने में सरकार बाजार से ऋण उठाती है और निजी निवेशक सरकार को ऋण उपलब्ध कराते हैं, जिसके कारण ब्याज दरों में वृद्धि होती है। जैसे यदि इस समय 100 करोड़ की रकम के ऋण की मांग है और सरकार 100 करोड़ रुपये का ऋण और लेना चाहे तो ऋण की मांग 200 करोड़ हो जाएगी और सरकार को अधिक ब्याज देना पड़ेगा। नोट छापने में सरकार को ऋण रिजर्व बैंक उपलब्ध करा देता है।

अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव

रिजर्व बैंक नोट छापता है और सरकार द्वारा जारी किए गए बांड को स्वयं अथवा दूसरे बैंकों के माध्यम से खरीद लेता है। इस स्थिति में बाजार में ऋण की मांग नहीं बढ़ती, क्योंकि यह लेनदेन ऋण बाजार के बाहर होता है। जैसे किसान यदि अपने पड़ोसी से खाद उधार लेकर आ जाए तो बाजार में खाद की मांग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, लेकिन दोनों परिस्थितियों का अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव ही पड़ता है। सरकार यदि बाजार से ऋण उठाती है तो ब्याज की दर बढ़ती है, सरकार पर ब्याज का बोझ बढ़ता है और सरकार के लिए ब्याज की भरपाई करना कठिन हो जाता है। समय से ऋण अदायगी न कर पाने से सरकार की साख भी गिरती है।

मुद्रा के अवमूल्यन का खतरा: बाजार में नोटों की आवक बढ़ने से महंगाई में तेजी आने की आशंका

अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज ने फिलहाल भारत की रेटिंग बीएए3 रखी है। यह निवेश योग्य सबसे निचली सीढ़ी है। ऐसे में यदि भारत सरकार के ऋण की गुणवत्ता इससे तनिक भी नीचे गिरती है तो उसका असर सरकार की साख पर पड़ेगा और उसके लिए बाजार से ऋण लेना मुश्किल हो जाएगा। इसकी तुलना में यदि रिजर्व बैंक नोट छापता है और सरकार को ऋण उपलब्ध कराता है तब बाजार में नोटों की आवक बढ़ जाती है। इससे महंगाई में तेजी आने की आशंका बढ़ेगी। मुद्रा के अवमूल्यन का एक खतरा अलग है। ऐसी स्थिति में सरकार स्वयं बाजार से ऋण ले अथवा रिजर्व बैंक उसे उपलब्ध कराए। जो भी हो, इस ऋण द्वारा यदि हम मंदी से जल्द उबर पाए तभी यह ऋण लेना सार्थक होगा। ऐसा न होने पर स्थिति पलट जाएगी और मंदी लंबी खिंचने के साथ ऋण बोझिल बन जाएगा।

कोविड संकट टलने के बाद अर्थव्यवस्था तेजी से कुलांचे भरेगी

आमदनी न बढ़ने से उसकी अदायगी भी मुश्किल होगी। ऐसे में ऋण का सदुपयोग करना आवश्यक है। मुद्रा कोष और विश्व बैंक दोनों का भी यही मानना है कि ऋण की रकम को यदि शिक्षा और तकनीकी सुधार में निवेश किया गया तो समग्र उत्पादकता में सुधार आएगा। तब कोविड संकट टलने के बाद अर्थव्यवस्था तेजी से कुलांचे भरेगी जैसे लंबे अवकाश के बाद छात्र और अध्यापक नई ऊर्जा के साथ शैक्षणिक गतिविधियों में जुटते हैं।

ऋण का उपयोग जनता की कार्य कुशलता बढ़ाने और तकनीकी सुधार में करना चाहिए

स्पष्ट है कि हमें ऋण का उपयोग जनता की कार्य कुशलता बढ़ाने और तकनीकी सुधार हासिल करने में करना चाहिए। हाल में दीपावली के समय बाजार में जो भारी मांग दिखाई पड़ी वह मुख्य रूप से सरकारीकर्मियों द्वारा जनित ही थी। आम आदमी की क्रय शक्ति इस समय बहुत घट गई है। इसका यही अर्थ है कि सरकार द्वारा ऋण का उपयोग मूलत: सरकारी खपत को पोषित करने के लिए किया जा रहा है और शिक्षा तथा तकनीकी विकास में निवेश करने में कम। ऐसी स्थिति में यदि मंदी लंबी खिंची तो देश को भारी मुश्किलों को सामना करना पड़ सकता है।

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