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कश्मीर में असल लोकतंत्र का आगाज: विरोध को दरकिनार कर जनता डीडीसी चुनावों में चुनेगी प्रतिनिधि

लंबे अरसे तक अनुच्छेद 370 की जकड़न में फंसे रहे जम्मू-कश्मीर की जमीन पर अब सही मायनों में लोकतंत्र पनपने वाला है। राज्य में हुए पंचायत चुनाव के बाद डीडीसी यानी डिस्ट्रिक्ट डेवलपमेंट काउंसिल भी अपने स्वरूप आकार लेने जा रही हैं। अब जनता अपने जिले के भविष्य की तकदीर का खाका खुद खींचेगी। वास्तव में स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला अवसर है जब जम्मू-कश्मीर में जमीनी लोकतंत्र, जनभागीदारी, लोक अधिकार और संवैधानिक प्रावधान पूर्ण रूप से आकार लेंगे। निश्चित ही यह एक सुखद क्षण होगा।

जम्मू-कश्मीर की जनता स्वार्थी नेताओं के हाथ की कठपुतली नहीं

ज्यादा सुखद इसलिए, क्योंकि प्रदेश के कुछ स्वार्थी नेताओं को जनता ने अहसास कराना शुरू कर दिया है कि वह उनके हाथ की कठपुतली नहीं है। यही कारण है कि वर्षों तक मनमानी करने वाले, प्रदेश की जनता को भ्रमित करने के साथ-साथ पूरे देश को डराने-धमकाने वाले नेता अब खुद डरे हुए हैं। उन्हें अब अपने राजनीतिक अस्तित्व का भय सताने लगा है, जिस पर ग्रहण लगता भी दिख रहा है।

जम्मू-कश्मीर में 28 नवंबर से डीडीसी चुनाव के पहले चरण का आगाज होने जा रहा

राज्य में शनिवार से डीडीसी चुनाव के पहले चरण का आगाज होने जा रहा है। ये चुनाव कुल आठ चरणों में होने हैं। सभी दल इस चुनाव में हिस्सा ले रहे हैं। नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी जैसे गुपकार समझौते वाले वे दल भी, जो इस चुनाव को साजिश करार दे रहे थे। उन्होंने इसमें हिस्सा लेने से मना कर दिया था। अब उन्हें महसूस हो गया कि ऐसा करना उनके सियासी वजूद को खतरे में डाल सकता है। असल में इस पूरे प्रकरण की पटकथा तभी लिख दी गई थी जब मोदी सरकार ने राज्य में मनोज सिन्हा जैसे सक्रिय राजनेता को उपराज्यपाल बनाकर भेजा।

जम्मू-कश्मीर प्रशासन जनसंपर्क और विश्वास बहाली पर जोर दे रहा

सिन्हा जनसंपर्क और जनसंवाद की ताकत समझते हैं और इसीलिए राज्य की कमान संभालते ही उन्होंने नौकरशाहों को स्पष्ट निर्देश दिया था कि जनता से लगातार मुलाकात होनी चाहिए। उनकी समस्या सुनी जाए और उन परेशानियों का समय से हल निकाला जाए। निचले स्तर पर पंचायत चुनाव हो चुका था और शीर्ष स्तर से लगातार जनसंपर्क और विश्वास बहाली पर जोर दिया जा रहा था। एक घटना के बाद जिस तरह सिन्हा सेना को रोककर खुद ही गांव तक पैदल गए, उससे जनता में भरोसा बढ़ा। ऐसे कदम विश्वास बहाली में आवश्यक सेतु का काम करेंगे। ऐसे में जब केंद्र सरकार ने प्रदेश के कैबिनेट मंत्रियो और सांसदों, विधायकों वाली डिस्ट्रिक्ट डेवलपमेंट बोर्ड की जगह पूरी तरह चुनाव से बनने वाली डीडीसी को हरी झंडी दिखाई तो प्रादेशिक नेताओं के पांव तले जमीन ही खिसक गई। शुरुआत में उन्होंने इसे साजिश करार देकर विरोध किया, परंतु अब पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस ने साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया है।

दो धुर विरोधी दल नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ने एक दूसरे का दामन थाम लिया

वैसे यह पहला अवसर नहीं जब देश में दो धुर विरोधी दल एक मंच पर आए हों। बीते कुछ वर्षों के राजनीतिक रुझान को देखें तो ऐसे कई वाकये दिखेंगे। यदि जनहित या देशहित के लिए ऐसा जुड़ाव होता तो अत्यंत सुखद होता, परंतु धुर विरोधियों के हाथ मिलाने के ये मामले निहित स्वार्थ और किसी भी कीमत पर भाजपा को रोकने के मकसद से ही हो रहे हैं। महाराष्ट्र में कांग्रेस और शिवसेना एक हो गईं, बंगाल में कांग्रेस और वाम एक हैं, उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा जैसे दल एक साथ आ गए थे और अब कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ने एक दूसरे का दामन थाम लिया है। दरअसल राजनीतिक दलों को यह भ्रम होने लगा है कि वोटर उनके कार्यकर्ता होते हैं। उत्तर प्रदेश में यह भ्रम टूट गया था।

‘रोशनी एक्ट’ का काला साया गुपकार और कांग्रेस नेताओं पर मंडरा रहा

जम्मू-कश्मीर की बात करें तो गुपकार नेताओं की किस्मत ही खराब दिखती है। वे फिर से उसी 370 की वापसी और 35 ए की बात कर रहे हैं, जिससे मुक्ति पाकर ही विकास शुरू हुआ है। उन्होंने जमीन खरीद के मामले में बदले नियमों का भी विरोध किया है। इस बीच उस ‘रोशनी एक्ट’ के पीछे का स्याह सच भी सामने आने लगा है, जिसका काला साया गुपकार और कांग्रेस नेताओं पर मंडरा रहा है। हाईकोर्ट के आदेश पर जमीन की बंदरबांट में जिस तरह नेशनल कांफ्रेस, पीडीपी और कांग्रेस नेताओं के नाम आ रहे हैं, उससे साफ हो गया है कि इन स्वार्थी नेताओं ने प्रदेश में किसी को झांकने की इजाजत क्यों नहीं दी। क्यों पूरे देश को डराया जाता रहा कि कश्मीर में दखल देने की कोई कोशिश हुई, तो उसके घातक परिणाम होंगे और उस पर पाकिस्तान की पकड़ मजबूत हो जाएगी। दरअसल ये नेता अपनी करतूतों को पर्दे के पीछे रखना चाहते थे।

गुपकार और कांग्रेस नेता डीडीसी चुनाव में 370 की वापसी का बेसुरा राग छेड़ रहे हैं

जमीन की बात करने वाले इन नेताओं ने खुद ही कानून बनाकर हजारों कनाल सरकारी जमीन अपने नाम कर ली। गरीबों को मुट्ठी भर दिया और अपना घर भर लिया। जनता को भरमाया और प्रदेश में पिछड़ों, दलितों, महिलाओं को संवैधानिक अधिकारों से वंचित रखा। अब उन्हें अधिकार मिलना शुरू हुआ है तो डीडीसी चुनाव में 370 की वापसी का बेसुरा राग छेड़ रहे हैं। क्या कोरोना काल में इन नेताओं की सोचने-समझने की क्षमता इतनी संक्रमित हो गई है कि वे जनता के अधिकार छीनने वाले मुद्दे के साथ मैदान में उतरे हैं।

डीडीसी चुनावों में विकास ही सबसे बड़ा मुद्दा

क्या गुपकार और कांग्रेस नेता अब भी देश की हवा का रुख भांपकर उससे कोई सबक सीखने को तैयार नहीं। अब चुनावों में विकास ही सबसे बड़ा मुद्दा है। इस मोर्चे पर फारूक से लेकर महबूबा मुफ्ती तक अपनी क्या उपलब्धियां गिना सकते हैं? हजारों कनाल जमीन हड़पने वाले नेता आखिर किस मुंह से जनता को यह बताएंगे कि उद्योगों को आखिर जमीन देने में क्या बुराई है, जबकि इन उद्योगों से खुद जनता की भलाई होना तय है। गुपकार नेता तय कर लें कि क्या वे जनता को अपनी दलीलों से समझा पाएंगे। अन्यथा जनता द्वारा तो उन्हें समझाना तय माना जाए। राज्य की जनता ने इन्हीं नेताओं के विरोध के बावजूद पंचायत चुनाव में वोट देकर अपने प्रतिनिधि चुने थे और अब डीडीसी में भी खुली सोच से वोट डालेंगे।

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